Friday, January 14, 2011

मेरा संदेश साधु-संत और मुजरिम भी पढ़ते हैं The message

एक तोहफा बहन शालिनी के लिए http://shalinikaushik2.blogspot.com/
1- आप कैसे हर लम्हा धीरे-धीरे इस्लाम की ओर बढ़ रहे हैं?
@ भाई डा. श्याम गुप्ता जी ! आपसे मैं जितना संवाद कर रहा हूं उतना ही ज़्यादा यह साफ़ होता जा रहा है कि आप डाक्टर कहलाते ज़रूर हैं लेकिन आपका अक्षर ज्ञान तक कमज़ोर है। आपने ‘चैरिटी मस्ट बिगिन फ़्राम होम‘ एक अंग्रेज़ी कहावत लिखी और ग़लत लिखी। एक डाक्टर कहलाने वाले व्यक्ति के लिए ऐसी ग़लतियां करना शोभा नहीं देता। लोग देखेंगे तो आपका इम्प्रेशन उन पर ग़लत पड़ेगा।
आपने बताया नहीं है कि इस्लाम के अनुसार कैसे ग़लत है किसी विद्वान को उद्धृत करके नेकी और भलाई की बात बताना ?
कृप्या बताएं ताकि मैं उससे बचूं ?
मैं नहीं चाहता कि मैं कोई काम खि़लाफ़े इस्लाम करूं।
मेरा संदेश आपकी ही तरह सभी हिंदी जानने वाले पढ़ते हैं। साधु-संत और वेश्याओं से लेकर मुजरिम भी पढ़ते हैं। इसलिए आप यह नहीं कह सकते कि मैं मुजरिमों को नेकी की बात नहीं बताता।
इस्लामी सिद्धांतों का प्रचार मैं ही नहीं करता बल्कि आप भी करते हैं। कुछ समय पहले तक भारत में चार वर्णों की व्यवस्था थी, ऊंचनीच और छूतछात थी, विधवा का दोबारा विवाह नहीं हुआ करता था बल्कि उसे सती किया जाता था, औरत को संपत्ति में हिस्सा नहीं दिया जाता था, उसे पढ़ने की मनाही थी वग़ैरह, वग़ैरह। इन सब ज़ुल्मों को आप हिंदू धर्म का नाम दिया करते थे लेकिन आज ये सब ज़ुल्म बंद हो चुके हैं। ख़ुद आप लोगों ने ही इन सब रीति-रिवाजों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई और इन्हें छोड़ दिया। आज आप इंसानों को बराबर मानते हैं और औरतों को वे सब अधिकार देते हैं जो कि आदि शंकराचार्य जी ने भी नहीं दिए आज तक। आपको बराबरी और भाईचारे का उसूल कहां से मिला ?
ज़रा सोच कर बताईयेगा।
हो सकता है कि आप अपने तास्सुब और अहंकार के कारण न मानें, तब मैं आपको हिंदू सुधारकों के उद्धृण दूंगा जिनमें वे स्वीकार करते हैं कि ये उसूल हमने इस्लाम से लिए हैं। आप भी इस्लाम के उसूलों को अपनाकर ही काम चला रहे हैं वर्ना आप जी ही नहीं सकते। बस आप इस्लाम का नाम नहीं लेते और मैं नाम लेता हूं और बताता हूं कि हां यह उसूल इस्लाम का है।
काफ़ी सारे इस्लामी उसूल आपकी ज़िंदगी में आ चुके हैं। आपकी धोती, चोटी और जनेऊ आपसे रूख़्सत हो चुके हैं। सबका मालिक एक है, यह भी आप मानने लगे हैं। पहले आप मूर्ति में शक्ति माना करते थे और अब उसे मात्र ध्यान जमाने का एक माध्यम भर मानने लगे हैं। देश में इस्लामी बैंकिंग आने ही वाली है यानि कि आर्थिक व्यवस्था भी इस्लाम के प्रभाव में आने वाली है। ग़र्ज़ यह कि बहुत से चेंज आ चुके हैं लेकिन जिनके पास सोचने समझने की ताक़त नहीं है या फिर उनमें मानने का हौसला नहीं है वे कैसे इस बात को मान सकते हैं कि वे हर लम्हा धीरे-धीरे इस्लाम की ओर बढ़ रहे हैं?
2- इस्लाम एक प्राकृतिक व्यवस्था है
@ बहन शालिनी कौशिक जी ! धर्म का उद्देश्य कल्याण है। यज्ञ में अन्न-धन जलाना एक आडंबर है। इसके विरोध में महात्मा बुद्ध आदि विचारक आवाज़ भी उठा चुके हैं और उनके तर्क बल के सामने परास्त होकर वेदवादियों द्वारा कलियुग में यज्ञ आदि न करने की व्यवस्था भी निर्धारित की जा चुकी है। राजनीति हो या व्यापार, जब आप आदमी को जीवन का सही मक़सद और जीवन गुज़ारने की सही रीत नहीं बता पाएंगे तो वह ग़लत ही तो करेगा। आज ग़लतियों का अंबार है और उन ग़लतियों को आज परंपरा का नाम दिया जा चुका है जैसे कि पूस के महीने में नवविवाहित हिंदू दंपत्ति न अपने किसी रिश्तेदार के जा सकते हैं और न ही आप में शारीरिक आनंद ले-दे सकते हैं। आखि़र क्या औचित्य है ऐसे आडंबर का ?
मेरा एक परिचित युवक है सुदामा यादव। बेचारे की अभी ताज़ी शादी हुई है और दोनों तरफ़ है आग बराबर लगी हुई और तब भी बेचारे आपस में मिल नहीं सकते जबकि इस्लाम में ऐसा कोई प्रतिबंध नहीं है। सारे सुधारों का मूल इस्लाम है। चाहे आप सीधे मान लें या फिर हल्के-हल्के करके। ये परंपराएं अब और चलने वाली नहीं हैं। आप भी एक नारी हैं। ‘ख़ास दिनों‘ में हिंदू धर्म की जो व्यवस्था है उसे आज आप नहीं मानती हैं और वैसे रहती हैं जैसे कि ‘उन दिनों‘ में इस्लाम बताता है। चाहे आपको पता भी न हो। इसी को कहते हैं प्राकृतिक व्यवस्था। इस्लाम एक प्राकृतिक व्यवस्था है।
इस संवाद कि पृष्ठभूमि  जानने के लिए देखें -
https://www.blogger.com/comment.g?blogID=554106341036687061&postID=253021086093887940&isPopup=त्रुए
और
http://ahsaskiparten.blogspot.com/2011/01/hungers-cry.html